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कविता

बिन बादल बरसात से

अरविंद राही


कैसी रिमझिम तन-मन भीगा
बिन बादल बरसात से।
मन के द्वार रंगोली भरकर
धूप-दीप ड्यौढ़ी पर धरकर
बंदनवार सजा बरसों तक
राह अगोरी आहें भरकर
स्वाती में भी चातक प्यासा
व्याकुल है हर घात से।

तृषित अधर-धर तुहिन सरोवर
छुअन उकेरी कोरे मन पर
चुभन और दंशन पाया है
एक कुँवारी चाह बेच कर
खोई सुध-बुध, मन अनमन
तन भीगा जी भर रात से।

सूखी नदियाँ, सूखी शाखें
सूख गईं, रो-रोकर आँखें
यादों के रेतीले तट पर,
मन का पंछी तोड़े पाँखें
टूटे अपने सपने, घायल
मन होता हर बात से।


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